Tulsidas Ke Dohe | तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित

Tulsidas Ke Dohe | तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित

Tulsidas Ke Dohe | तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित

तुलसीदास के 10 दोहे

60 Popular Dohe of Tulsidas with Meaning in Hindi

Tulsidas Ke Dohe – संत तुलसीदास, जिन्हें स्वानी तुंसीदास, के नाम से भी जाना जाता है,एक बहुत प्रसिद्ध और सम्मानित लेखक और कवि थे। उन्होने कई किताबें लिखीं जो सनातन धर्म और भारतीय विचारधारा की अभिव्यक्ति हैं। संत तुलसीदास जी की 100 से भी अधिक लोकप्रिय रचनाएं हैं जिनका उपयोग लोग रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आध्यात्मिक मार्गदर्शन और व्यावहारिक सलाह दोनों के लिए इस्तेमाल करते हैं। तुलसीदास जी के दोहों को भारतीय सभ्यता सराहना करते हैं और उनका आनंद लेते हैं। हम आप के लिए संत तुलसीदास के दोहे (Tulsidas Ke Dohe) लाये हैं जो आपके जीवन में सकरात्मक ऊर्जा को प्रवाहित करेगी और आपके जीवन को प्रेरणा से भरने में भी सहायक होंगे। तो आइये जानते है तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित विस्तार से।

दोहा – 1

तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर। बसीकरन इक मंत्र है, परिहरू बचन कठोर।।

शब्दार्थ

सुख – आराम, चैन, आनंद उपजत – उपज , पैदावार चहुँ ओर – चारों ओर बसीकरन – वश में करना परिहरू – परिहार करने वाला , त्यागने वाला बचन – बात , वाणी कठोर – कड़ा, निष्ठुर, बेरहम

भावार्थ:- तुलसी दास जी कहते है कि मीठी वाणी बोलने से चारों ओर सुख का प्रकाश फैलता है। मीठी वाणी बोलकर किसी को भी सम्मोहित किया जा सकता है। इसलिए मनुष्य को कठोर और तीखी वाणी छोड़कर हमेशा मीठी वाणी ही बोलना चाहिए।

दोहा – 2

दुर्जन दर्पण सम सदा, करि देखौ हिय गौर। संमुख की गति और है, विमुख भए पर और।।

शब्दार्थ

दुर्जन – दुष्ट व्यक्ति दर्पण – शीशा, आईना सदा – हर समय, हर वक्त संमुख – जो किसी के सामने या किसी की ओर मुंह किए हो विमुख – विरत , प्रतिकूल

भावार्थ:- दुर्जन शीशे के समान होते हैं, इस बात को ध्यान से देख लो, क्योंकि दोनों ही जब सामने होते हैं तब तो और होते हैं और जब पीठ पीछे होते हैं तब कुछ और हो जाते हैं। भाव यह है कि दुष्ट पुरुष सामने तो मनुष्य की प्रशंसा करता है और पीठ पीछे निंदा करता है, इसी प्रकार शीशा भी जब सामने होता है तो वह मनुष्य के मुख को प्रतिबिंबित करता है; पर जब वह पीठ पीछे होता है तो प्रतिबिंबित नहीं करता।

दोहा – 3

‘तुलसी’ इस संसार में, भांति भांति के लोग। सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग।।

शब्दार्थ

भांति भांति – अलग – अलग प्रकार के

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि इस संसार में कई प्रकार के लोग रहते है। जिनका व्यवहार और स्वभाव अलग अलग होता है। आप सभी से मिलिए और बात करिए। जैसे नाव नदी से दोस्ती कर अपने मार्ग को पार कर लेता है। वैसे आप अपने अच्छे व्यवहार से इस भवसागर को पार कर लेंगे।

दोहा – 4

माता-पिता गुरु स्वामि सिख, सिर धरि करहिं सुभाय। लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर, नतरु जनम जग जाये।।

शब्दार्थ

गुरु – पूज्य पुरुष स्वामि – मालिक सिख – शिष्य, चेला जग – संसार, जगत्

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने माता-पिता और गुरुओं के आदेश का पालन करता है उनका जन्म सिद्धि हो जाता है। इसके विपरीत जो लोग माता-पिता या गुरु के आदेशों का पालन नहीं करते उनका जन्म लेना व्यर्थ है।

दोहा – 5

‘तुलसी’ काया खेत है, मनसा भयौ किसान। पाप-पुन्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान।।

शब्दार्थ

काया – शरीर, देह पाप – अपराध, धर्म एवं नीति विरुद्ध किया जानेवाला आचरण पुन्य – अच्छा / भला कार्य निदान – अंत में

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि हमारा शरीर एक खेत के समान है और मन इस खेत का किसान है। किसान जैसे बीज खेत में बोता है अंत में उसे वैसे ही फल मिलते हैं। इसी तरह अपने पाप या पुण्य का फल भी व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही मिलता है।

दोहा – 6

राम नाम जपि जीहँ जन, भए सुकृत सुखसालि। तुलसी इहाँ जो आलसी, गयो आज की कालि।।

शब्दार्थ

जपि – किसी मंत्र या वाक्य का बार बार धीरे धीरे पाठ करना सुकृत – अच्छे ढंग से किया गया आलसी – निकम्मा और सुस्त

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि जिन लोगों की जिह्वा निरंतर राम-नाम का जाप करती रहती है, वे सभी दुखों से मुक्त होकर परम सुखी और पुण्यात्मा हो गए हैं। परंतु जो आलस्य के कारण नाम-जाप से विमुख रहते हैं, उनका वर्तमान और भविष्य नष्ट समझना चाहिए।

दोहा – 7

बिनु सतसंग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग। मोह गएँ बिनु रामपद, होइ न दृढ़ अनुराग।।

शब्दार्थ

सतसंग – महात्माओं का संग, भली संगत हरिकथा – एक मिश्रित कला रूप है जिसमें कहानी, कविता, संगीत, नाटक, नृत्य और दर्शन शामिल हैं मोह – अज्ञान, भ्रम , भ्रांति दृढ़ – पक्का, मज़बूत अनुराग – प्रेम , भक्ति

भावार्थ:- सत्संग के बिना भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को नहीं मिलती, भगवान की रहस्यमयी कथाओं के सुने बिना मोह नहीं भागता और मोह का नाश हुए बिना भगवान श्री राम के चरणों में अचल प्रेम नहीं होता।

दोहा – 8

आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह। ‘तुलसी’ तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह।।

शब्दार्थ

आवत – आने वाला सनेह – स्नेह, प्रेम कंचन – धन, संपत्ति

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति के घर में जाने पर घर के लोग आपको देखकर प्रसन्न न हों और जिनकी आंखों में जरा भी स्नेह न हो, तो ऐसे घर में कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहां जाकर कितना ही लाभ क्यों न हो।

दोहा – 9

बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि। सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।

शब्दार्थ

बचन – वचन, बात बेष – अच्छा, श्रेष्ठ, बढ़िया सूपनखा – एक प्रसिद्ध राक्षसी जो रावण की बहिन थी मृग – हिरन दस – नौ से एक अधिक

भावार्थ:- किसी की मीठी बातों और किसी के सुंदर कपड़ों से, किसी पुरुष या स्त्री के मन की भावना कैसी है यह नहीं जाना जा सकता है क्योंकि मन से मैले सूर्पनखा, मारीच, पूतना और रावण के कपड़े बहुत सुन्दर थे। इसीलिए दिखावे से आकर्षित मत हों।

दोहा – 10

काम, क्रोध, मद, लोभकी, जौ लौं मन में खान। तौं लौ पंडित मूरखौं, तुलसी एक समान।।

शब्दार्थ

काम – कामना, इच्छा क्रोध – गुस्सा मद – खाता (जैसे—रुपया हमारे मद में जमा करना) लोभकी – लालची पंडित – शास्त्रज्ञ विद्वान

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से तुलसी जी उन लोगों के बारे में बताते हैं जिनके मन में काम, गुस्सा, अहंकार और लालच भरा हुआ है। इस स्थिति में ज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति एक ही समान है।

दोहा – 11

राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर। ध्यान सकल कल्यानमय, सुरतरु तुलसी तोर।।

शब्दार्थ

बाम – बायी सुरतरू – कल्पवृक्ष मनमाना फल देने चाला

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम जी की बायीं ओर जानकीजी हैं और दायीं ओर श्री लक्ष्मण जी हैं । यह ध्यान संपूर्ण रूप से कल्याणकारी हैं। तुलसीदास यह भी स्वीकार करते हैं कि हे तुलसी ! तेरे लिए यह ध्यान कल्प-वृक्ष के समान है, मनमाना फलदायक है।

दोहा – 12

अनुदिन अवध बधावने, नित नव मंगल मोद। मुदित मातु-पितु लोग लखि, रघुवर बाल विनोद।।

शब्दार्थ

अनुदिन – प्रतिदिन, हर रोज नित – प्रतिदिन, रोज मोद – आनंद, हर्ष, प्रसन्नता, खुशी मुदित – प्रसन्न रघुवर – भगवान रामविनोद – मनोरंजन , क्रीड़ा

भावार्थ:- तुलसीदास कहते हैं कि अयोध्या में रोज बधावे बजते हैं, नित नए-नए मंगलाचार और आनंद मनाए जाते हैं। श्री रघुनाथ जी की बाल लीला देख-देखकर माता-पिता तथा सब लोग बड़े प्रसन्न होते हैं।

दोहा – 13

बिगरी जनम अनेक की, सुधरै अबहीं आजु। होहि राम को नाम जपु, तुलसी तजि कुसमाजु।।

शब्दार्थ

बिगरी – परिस्थिति या काम जो बिगड़ चुका हो

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि हे मनुष्य! यदि तुम कई जन्मों से बिगड़ी हुई अपनी स्थिति को सुधारना चाहते हो तो क्ह्नक्तसंगति और मन के समस्त विकारों को त्यागकर राम-नाम का सुमिरन करो, राम के बन जाओ।

दोहा – 14

ऊँची जाति पपीहरा, पियत न नीचौ नीर। कै याचै घनश्याम सों, कै दु:ख सहै सरीर।।

शब्दार्थ

जाति – वंश, कुल पपीहरा – कीड़े खाने वाला एक पक्षी जो वसंत और वर्षा में प्रायः आम के पेड़ों पर बैठकर बड़ी सुरीली ध्वनि में बोलता है । नीर – जल घनश्याम – काले बादल सरीर – देह, शरीर याचै – अनुरोध, अपील

भावार्थ:- पपीहा वास्तव में बड़ी ऊँची जाति का है, जो नीचे ज़मीन पर पड़ा हुआ पानी नहीं पीता। वह या तो बादल से पानी माँगता है या अपने शरीर पर दु:ख ही झेलता रहता है। भाव यह कि श्रेष्ठ पुरुष तुच्छ वासनाओं में कभी नहीं फँसते, वे सदा उत्कृष्ट गुणों को ही ग्रहण करते हैं।

दोहा – 15

बिनु विश्वास भगति नहीं, तेही बिनु द्रवहिं न राम। राम-कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लहि विश्राम।।

शब्दार्थ

भगति – ईश्वर के प्रति जो परम प्रेम है उसे ही भक्ति कहते हैं। जीव – प्राण, जान विश्राम – आराम हेतु मिलनेवाला अवकाश

भावार्थ:- भगवान में सच्चे विश्वास के बिना मनुष्य को भगवद्भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती और बिना भक्ति के भगवान कृपा नहीं कर सकते। जब तक मनुष्य पर भगवान की कृपा नहीं होती तब तक मनुष्य स्वप्न में भी सुख-शांति नहीं पा सकता। अत: मनुष्य को भगवान का भजन करते रहना चाहिए ताकि भगवान के प्रसन्न हो जाने पर भक्त को सब सुख-संपत्ति अपने आप प्राप्त हो जाये।

दोहा – 16

राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार। ‘तुलसी’ भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार।।

शब्दार्थ

देहरी – दहलीज़ द्वार – दरवाज़ा (जैसे—प्रवेश द्वार) उजियार – उज्जवल

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि तुम अपने हृदय के अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश चाहते हो तो राम-नाम रूपी मणि के दीपक को जीभ रूपी देहली के द्वार पर धर लो। दरवाजे की देहली पर यदि दीपक रख दिया जाए तो उससे घर के बाहर और अंदर दोनों ओर प्रकाश हो जाया करता है। इसी प्रकार जीभ मानो शरीर के अंदर और बाहर दोनों ओर की देहली है। इस जीभ रूपी देहली पर यदि राम-नाम रूपी मणि का दीपक रख दिया जाय तो हृदय के बाहर और अंदर दोनों ओर अवश्य प्रकाश हो ही जाएगा।

दोहा – 17

‘तुलसी’ साथी विपति के, विद्या, विनय, विवेक। साहस, सुकृत, सुसत्य-व्रत, राम-भरोसो एक।।

शब्दार्थ

विद्या – ज्ञान विनय – प्रार्थना विवेक – समझ (जैसे—विवेक से काम करना) / भले बुरे का ज्ञान साहस – हिम्मत सुकृत – अच्छे ढंग से किया गया (जैसे—सुकृत कर्म)

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि विद्या, विनय, ज्ञान, उत्साह, पुण्य और सत्य भाषण आदि विपत्ति में साथ देने वाले गुण एक भगवान राम के भरोसे से ही प्राप्त हो सकते हैं।

दोहा – 18

घर दीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाय। ‘तुलसी’ घर बन बीच रहू, राम प्रेम-पुर छाय।।

शब्दार्थ

घर – निवास-स्थान, मकान घर – किसी बात का मन में गहरे बैठ जाना

भावार्थ:- यदि मनुष्य एक स्थान पर घर करके बैठ जाए तो वह वहाँ की माया-ममता में फँसकर उस प्रभु के घर से विमुख हो जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य घर छोड़ देता है तो उसका घर बिगड़ जाता है, इसलिए कवि का कथन है कि भगवान राम के प्रेम का नगर बना कर घर और वन दोनों के बीच समान रूप से रहो, पर आसक्ति किसी में न रखो।

दोहा – 19

‘तुलसी’ भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए। अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।।

शब्दार्थ

भरोसे – दृढ़ विश्वास निर्भय – निडर, भय-हीन अनहोनी – अलौकिक घटना

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि जो होना है वो होकर रहेगा। भगवान पर भरोसा करें और किसी भी भय के बिना शांति से सोइए। कुछ भी अनावश्यक नहीं होगा, और अगर कुछ अनिष्ट घटना ही है तो वो होकर रहेगा, इसके लिए चिंता करना अनावश्यक है।

दोहा – 20

दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। ‘तुलसी’ दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण।।

शब्दार्थ

दया – करुणा, रहम धर्म – लौकिक एवं सामाजिक कर्तव्य पाप – अपराध, क़सूर मूल – जड़ , आदि कारण (जैसे—सृष्टि का मूल)। अभिमान – अहंकार, घमंड

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि धर्म का असली मूल तो दूसरों पर दया रखना है और अभिमान ही पाप की नींव है। इसीलिए जब तक जीवन है इंसान को दया करनी नहीं छोड़नी चाहिए।

दोहा – 21

मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान, पान कहुँ एक । पालइ पोषइ सकल अंग, ‘तुलसी’ सहित बिबेक।।

शब्दार्थ

मुखिया – प्रधान , सभापति (जैसे— गाँव /दल का मुखिया) मुखु – प्राणी का मुँह खान – खाने की क्रिया पोषइ – पोषण करनेवाला

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से तुलसीदास जी यह कहना चाहते है कि मुखिया बिल्कुल इंसान के मुख की तरह होना चाहिए। जैसे मुख खाना अकेला खाता है लेकिन शरीर के सभी अंगों का बराबर पोषण करता है। उसी तरह मुखिया को अपना काम इस तरह से करना चाहिए की उसका फल सब में बंटे।

दोहा – 22

गंगा जमुना सुरसती, सात सिंधु भरपूर। ‘तुलसी’ चातक के मते, बिन स्वाती सब धूर।।

शब्दार्थ

गंगा – भारतवर्ष की एक प्रसिद्ध एवं पवित्र नदी जिसे लाने का श्रेय भगीरथ को माना गया है।

जमुना – पवित्र नदी का नाम

सात सिंधु – सात पवित्र नदियाँ

भरपूर – परिपूर्ण

चातक – पपीहा पक्षी

धूर – धूल

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि गंगा, यमुना, सरस्वती और सातों समुद्र ये सब जल से भले ही भरे हुए हो, पर पपीहे के लिए तो स्वाति नक्षत्र के बिना ये सब धूल के समान ही हैं; क्योंकि पपीहा केवल स्वाति नक्षत्र में बरसा हुआ जल ही पीता है। भाव यह है कि सच्चे प्रेमी अपनी प्रिय वस्तु के बिना अन्य किसी वस्तु को कभी नहीं चाहता, चाहे वह वस्तु कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो।

दोहा – 23

सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।

राज धर्म तन तीनि कर, होई बेगिहीं नास।।

शब्दार्थ

सचिव – संस्था का उत्तरदायी व्यक्ति , मंत्री

बैद – चिकित्सा शास्त्र का जानने वाला पुरुष, वैद्य

गुरु – पूज्य पुरुष, शिक्षक

भय – डर, ख़ौफ़

धर्म – लौकिक एवं सामाजिक कर्तव्य

नास – विनास

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते है कि यदि गुरू, वैद्य और सलाहकार से डर या फायदे की आशा से अच्छा बोलते है तो धर्म, शरीर और राज्य इन तीनों का विनाश शीघ्र ही तय है।

दोहा – 24

सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं, दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।

धीरज धरहुं विवेक विचारी, छाड़ि सोच सकल हितकारी।।

शब्दार्थ

सुख – आराम, चैन

धीर – नम्र, शांत स्वभाव वाला

धीरज – धैर्य

विवेक – समझ, (जैसे—विवेक से काम करना)

सकल – समस्त, कुल

हितकारी – भलाई करनेवाला

भावार्थ:- मुर्ख व्यक्ति दुःख के समय रोते बिलखते है सुख के समय अत्यधिक खुश हो जाते है जबकि धैर्यवान व्यक्ति दोनों ही समय में समान रहते है कठिन से कठिन समय में अपने धैर्य को नही खोते है और कठिनाई का डटकर मुकाबला करते हैं।

दोहा – 25

करम प्रधान, बिस्व करि राखा।

जो जस करई, सो तस फलु चाखा।।

शब्दार्थ

करम – कर्म, भाग्य

प्रधान – मुख्य

बिस्व – जगत, संसार

भावार्थ:- तुलसीदास जी के दोहे का ये मतलब है कि ईश्वर ने कर्म को ही महानता दी है। उनका कहना है कि जो जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है।

दोहा – 26

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।

बरषत वारिद-बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास।।

शब्दार्थ

अवलंब – सहारा, ओट

परमारथ – निष्ठापूर्वक कर्तव्य का निर्वहन करना

चढ़न – चढ़ाई

भावार्थ:- राम-नाम का आश्रय लिए बिना जो लोग मोक्ष की आशा करते हैं अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों परमार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं वे मानो बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़ कर आकाश में चढ़ जाना चाहते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पानी की बूँदों को पकड़ कर कोई भी आकाश में नहीं चढ़ सकता वैसे ही राम नाम के बिना कोई भी परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता।

दोहा – 27

लहइ न फूटी कौड़िहू, को चाहै केहि काज।

सो ‘तुलसी’ महँगो कियो, राम ग़रीबनिवाज।।

शब्दार्थ

लहइ – अल्प, कम

काज – कार्य, काम

तुलसी – तीक्ष्ण गंधवाला एक प्रसिद्ध पवित्र पौधा

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि जिसको एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी अर्थात जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी, उसको भला कौन चाहता और किस लिए चाहता। उसी तुलसी को ग़रीब-निवाज श्री राम जी ने आज महँगा कर दिया अर्थात उसका गौरव बढ़ा दिया।

दोहा – 28

नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु।

जो सिमरत भयो भाँग, ते तुलसी तुलसीदास।।

शब्दार्थ

कल्पतरु – मनचाहा पदार्थ देनेवाला , इच्छा-पूर्ति करने वाला

कल्याण का निवास – मुक्ति का घर

भाँग – गाँजे की जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी पत्तियाँ मादक होती हैं और जिन्हें पीसकर लोग नशे के लिये पीते हैं

भावार्थ:- कलियुग में प्रभु श्री राम का नाम मनोवांछित फल देने वाला कल्पवृक्ष है। राम नाम सभी पापों से मुक्त करने वाला है। तुलसीदास जी कहते हैं, मैं भाँग के समान था और उनका नाम स्मरण कर तुलसी से तुलसीदास हो गया।

दोहा – 29

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख, जो न करइ सिर मानी।

सो पछिताई अघाइ उर, अवसि होई हित हानि।।

शब्दार्थ

सहज – एक ही समय उत्पन्न

सुहृद – मित्र, सखा

गुर – शिक्षक

स्वामि – मालिक

भावार्थ:- अपने हितकारी स्वामी और गुरु की नसीहत ठुकरा कर जो इनकी सीख से वंचित रहता है, वह अपने दिल में ग्लानि से भर जाता है और उसे अपने हित का नुकसान भुगतना ही पड़ता है।

दोहा – 30

रामहि सुमिरत रन भिरत, देत परत गुरु पायँ।

‘तुलसी’ जिन्हहि न पुलक तनु, ते जग जीवत जाएँ।।

शब्दार्थ

रन – लड़ाई, युद्ध, जंग

गुरु – पूज्य पुरुष, शिक्षक

पुलक – हर्ष, भय आदि मनोविकारों की प्रबलता में रोंगटे खड़े होना, रोमांच

तनु – देह, शरीर

जग – संसार, जगत्

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान श्रीराम का स्मरण होने के समय, धर्म युद्ध में शत्रु से भिड़ने के समय, दान देते समय और श्री गुरु के चरणों में प्रणाम करते समय जिनके शरीर में विशेष हर्ष के कारण रोमांच नहीं होता, वे जगत में व्यर्थ ही जीते हैं।

दोहा – 31

सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियुश हृद, तिन्हहुं किए मन मीन।।

शब्दार्थ

सकल – समस्त, कुल

कामना – अभिलाषा, वांछा

हीन – तुच्छ, खराब

लीन – समाया हुआ

भावार्थ:- जो सभी इच्छाओं को छोड़कर राम भक्ति के रस में लीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते वही सच्चा भक्त है।

दोहा – 32

बिना तेज के पुरुष की, अवशि अवज्ञा होय।

आगि बुझे ज्यों राख की, आप छुवै सब कोय।।

शब्दार्थ

तेज – चमक, प्रताप

अवज्ञा – अनादर

राख – जले पदार्थ का अवशेष, भस्म

भावार्थ:- तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है। ठीक वैसे ही जैसे, जब राख की आग बुझ जाती हैं, तो उसे हर कोई छूने लगता है।

दोहा – 33

‘तुलसी’ नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।

भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।।

शब्दार्थ

नर – पुरुष, मर्द, मनुष्य

बलवान – ताक़तवाला

अर्जुन – महाभारत का एक प्रमुख पात्र

बाण – तीर, शर

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि समय बहुत बलवान होता है, वो समय ही है जो व्यक्ति को छोटा या बड़ा बनाता है। जैसे एक बार जब महान धनुर्धर अर्जुन का समय खराब हुआ तो वह भीलों के हमले से गोपियों की रक्षा नहीं कर पाए थे।

दोहा – 34

‘तुलसी’ देखि सुबेषु भूलहिं, मूढ़ न चतुर नर।

सुंदर केकिहि पेखु बचन, सुधा सम असन अहि।।

शब्दार्थ

मूढ़ – मूर्ख

चतुर – अपना मतलब निकालनेवाला

नर – पुरुष, मर्द, मनुष्य

बचन – वचन, बात

सुधा – अमृत

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु बुद्धिमान मनुष्य भी धोखा खा जाते है। सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार साँप का है।

दोहा – 35

‘तुलसी’ जस भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय।

आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय।।

शब्दार्थ

जस – यश, कीर्ति

भवितव्यता – होनी, होनिहार, भाग्य

सहाय – अनुयायी

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है मनुष्य को वैसी ही सहायता प्राप्त हो जाती है। होनहार स्वयं मनुष्य के पास नहीं आती प्रत्युत उसे ही स्वयं खींच कर वहाँ ले जाती है। भाव यह है कि होनहार या भाग्य के आगे किसी का कुछ वश नहीं चलता।

दोहा – 36

‘तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।

शब्दार्थ

कीरति – शोहरत, अच्छा नाम, प्रतिष्ठा, खुशी

मसि – स्याही, रोशनाई

भावार्थ:- इस दोहे के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो लोग दूसरों की बुराई कर खुद प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, वे खुद अपनी प्रतिष्ठा खो देते हैं। वहीं ऐसे व्यक्ति के मुंह पर एक दिन ऐसी कालिख पुतेगी जो कितनी भी कोशिश करें लेकिन मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली। अर्थात वह अपना यश और प्रतिष्ठा खोकर इस तरह से अपमानित होता हैं कि कई कोशिशों के बाद भी उस सम्मान को दोबारा प्राप्त नहीं कर सकता हैं।

दोहा – 37

हरे चरहिं तापहिं बरे, फरें पसारहिं हाथ।

‘तुलसी’ स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ।।

शब्दार्थ

हरे – घास या पत्ती के रंग का, हरित

स्वारथ – सफल, सिद्ध, सार्थक

मीत – मित्र, दोस्त

परमारथ – निष्ठापूर्वक कर्तव्य का निर्वहन करना

रघुनाथ – श्री रामचंद्र

भावार्थ:- वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु-पक्षी उन्हें चरने लगते हैं, सूख जाने पर लोग उन्हें जलाकर तापते हैं और फलने पर फल पाने के लिए लोग हाथ पसारने लगते हैं अर्थात् जहाँ हरा-भरा घर देखते हैं, वहाँ लोग खाने के लिए दौड़े जाते हैं, जहाँ बिगड़ी हालत होती है, वहाँ उसे और भी जलाकर सुखी होते हैं और जहाँ संपत्ति से फला-फूला देखते हैं, वहाँ हाथ पसार कर मांगने लगते हैं। तुलसीदास जी कहते है कि इस प्रकार जगत में तो सब स्वार्थ के ही मित्र हैं। परमार्थ के मित्र तो एकमात्र श्री रघुनाथ जी ही हैं।

दोहा – 38

तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।

‘तुलसी’ जिअत बिडंबना, परिनामहु गत जान।।

शब्दार्थ

तनु – देह, चर्म, त्वचा

धन – रुपया-पैसा

महिमा – बड़ाई, गौरव, प्रसिद्धि

अभिमान – अपनी प्रतिष्ठा या मर्यादा एवं सत्ता की अनुचित धारणा

धरम – धर्म

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते है कि तन की सुंदरता, सद्गुण, धन, सम्मान और धर्म आदि के बिना भी जिन्हें अभिमान होता है, ऐसे लोगों का जीवन बेहद परेशानियों से भरा होता है,और उसका परिणाम भी बेहद बुरा होता है।

दोहा – 39

रसना सांपिनी बदन बिल, जे न जपहिं हरिनाम।

‘तुलसी’ प्रेम न राम सों, ताहि बिधाता बाम।।

शब्दार्थ

सांपिनी – साँप

बदन – शरीर, देह

बिल – छेद

प्रेम – प्यार, माया, लोभ

बिधाता – सृष्टिकर्ता, ईश्वर, दाता

बाम – झूठा

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते है कि जो श्री हरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चा रूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है। जिसका राम में प्रेम नहीं है, उसके लिए तो विधाता वाम ही है, अर्थात उसका भाग्य फूटा ही है।

दोहा – 40

ब्यापी रहेउ संसार, महुँ माया कटक प्रचंड ।

सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाषंड ।।

शब्दार्थ

ब्यापी – चारों ओर फैलनेवाला, प्याप्त

माया – दया, ममता

कटक – समूह

प्रचंड – अति उग्र, अति तीव्र

सेनापति – फ़ौज या सेना का नायक

कामादि – काम, क्रोध, मद, मोह और मत्सर

दंभ – मिथ्या अभिमान, आडंबर, पाखंड

कपट – धोखा, छल

पाषंड – छलयुक्त धार्मिक कृत्य, ढोंग

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि माया की प्रचंड सेना संसार भर में फैल रहा है कामादि (काम, क्रोध, मद, मोह और मत्सर) वीर इस सेना के सेनापति हैं तथा दंभ, कपट, पाखंड उसके योद्धा है, जिसके आधार पर माया ने सारे संसार पर अधिकार कर रखा है।

दोहा – 41

ग्यानी तापस सूर कबि, कोबिद गुन आगार ।

केहि कै लोभ बिडंबना, कीनिह न एहिं संसार।।

शब्दार्थ

ग्यानी – जिसे ज्ञान या जानकारी हो, योग्य तथा समझदार

तापस – साधु, तपस्वी

सूर – शूरवीर

कबि – काव्य की रचना करनेवाला

गुन – गुण

लोभ – लालच, लालसा, कामना

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, पंडित और गुणों का धाम इस संसार में ऐसा कौन मनुष्य है, जिसकी लोभ ने मिट्टी पलीद न की हो।

दोहा – 42

दंपति रस रसना दसन, परिजन बदन सुगेह।

‘तुलसी’ हर हित बरन सिसु, संपति सहज सनेह।।

शब्दार्थ

दंपति – पति-पत्नी का जोड़ा

रस – स्वाद

रसना – खुश होना, रस मग्न होना

दसन – दाँत

परिजन – परिवार के सदस्य

बदन – मुख

संपति – धन-दौलत और जायदाद आदि जो किसी के अधिकार में हो

भावार्थ:- तुलसीदास कहते हैं कि रस और रसना (जीभ) दोनों पति-पत्नी हैं । समस्त रसों का भोग रसना के माध्यम से ही होता हैं और राम नाम रूपी रस तो रसना आत्मविभोर ही हो उठती है। तुलसी कहते हैं कि यह मुख ही संपूर्ण परिवार है। जिसमें दाँत कुटम्बी हैं, मुख सुन्दर घर है। श्री शंकर के प्रिय ‘रा’ और ‘म’ – ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और यहाँ सहज स्नेह ही सम्पत्ति है।

यहाँ का प्रत्येक तत्व परोपकारो हैं, रसना भी मात्र अपने लिए भोग नहीं करती, वह शरीर पोषण का साधन है, यही स्थिति दाँत, मुख आदि की है। तुलसी की कामना है कि सदगृहस्थ का परिवार भी ऐसा ही होना चाहिए।

दोहा – 43

राम भरोसो राम बल, राम नाम बिस्वास।

सुमिरत सुभ मंगल कुसल, मांगत तुलसीदास।।

शब्दार्थ

बल – शारीरिक शक्ति, ताक़त

मंगल – शुभ, अच्छा

कुसल – श्रेष्ठ, अच्छा, भला · पुण्यशील

भावार्थ:- तुलसीदास जी यही मांगते हैं कि मेरा एक मात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिनके स्मरण मात्र ही से शुभ, मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस राम नाम में ही विश्वास रहे।

दोहा – 44

‘तुलसी’ श्री रघुवीर तजि, करौ भरोसौ और।

सुख संपति की का चली, नरकहुँ नाहीं ठौर।।

शब्दार्थ

रघुवीर – भगवान राम

सुख – आनंद, आराम

ठौर – जगह, स्थान

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो भगवान राम को छोड़कर किसी दूसरे पर भरोसा रख कर बैठते हैं, उन्हें भला सुख-संपत्ति तो मिलेगी ही कहाँ से! उन्हें तो नरक में भी स्थान न मिलेगा। भाव यह कि मनुष्य को भगवान के सिवा किसी दूसरे का कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।

दोहा – 45

‘तुलसी’ अदभुत देवता, आसा देवी नाम ।

सेएँ सोक समर्पई, बिमुख भएँ अभिराम ।।

शब्दार्थ

अदभुत – विचित्र, अनोखा

अभिराम – आराम, प्रसन्नता

भावार्थ:- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि आशा देवी नाम की एक अद्भुत देवी है, यह सेवा करने पर दुख देती है और विमुख होने पर सुख देती है।

दोहा – 46

दिएँ पीठि पाछें लगै, सनमुख होत पराइ।

‘तुलसी’ संपति छाँह ज्यों, लखि दिन बैठि गँवाइ।।

शब्दार्थ

सनमुख – सामने आया हुआ, उपस्थित, प्रत्यक्ष

पराइ – दूसरा, विराना

संपति – धन – दौलत

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि संपत्ति शरीर की छाया के समान है। इसको पीठ देकर चलने से यह पीछे पीछे चलता है, और सामने होकर चलने से दूर भाग जाता है। अर्थात जो धन से मुँह मोड़ लेता है, धन की नदी उसके पीछे पीछे बहती चली आती है और जो धन के लिए सदा ललचाता रहता है, उसे सपने में भी धन कभी नहीं मिलता। इसलिए इस बात को समझ कर घर मे ही दिन बिताओं।

दोहा – 47

मान रखिवौ माँगिबौ, पिय सों सहज सनेहु।

‘तुलसी’ तीनों तब फबैं, जब चातक मत लेहु।।

शब्दार्थ

चातक – पपीहा पक्षी

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि माँगकर भी अपने मान को बचाए रखना, साथ ही प्रिय से स्वाभाविक प्रेम भी बनाए रखना – ये तीनों बातें तभी अच्छी लग सकती हैं, जब तक व्यक्ति पपीहे के समान आचरण अपने व्यवहार में लाए। जैसे पपीहा बादल से पानी की बूँदों के लिए प्रार्थना भी करता है और अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखता है। क्योंकि उसके हृदय में बादल के प्रति सच्चा प्रेम है, वह बादल के सिवा और किसी से कुछ नहीं माँगता। भाव यह कि सच्चा प्रेमी अपने प्रियतम से माँग कर भी अपने प्रेम और मान की रक्षा कर लेता है, पर दूसरे लोगों का माँगने से मान और प्रेम घट जाता है।

दोहा – 48

सीता लखन समेत प्रभु, सोहत तुलसीदास।

हरषत सुर बरषत सुमन, सगुन सुमंगल बास।।

शब्दार्थ

हरषत – ख़ुशी

सुर – देवता

सुमन – फूल

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता और लक्ष्मण के सहित प्रभु श्री रामचंद्र जी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान का यह सगुण ध्यान सुमंगल-परम कल्याण का निवास स्थान है।

दोहा – 49

सो तनु धरि हरि, भजहिं न जे नर।

होहिं बिषय रत, मंद मंद तर।।

कांच किरिच बदलें ते लेहीं।

कर ते डारि परस मनि देहीं।।

शब्दार्थ

तनु – शरीर, देह

नर – आदमी, इंसान

कांच – शीशा

परस मनि – बहुमूल्य पदार्थ या वस्तु (मान्यता है कि इस पारस मणि से लोहे की किसी भी वस्तु से छुआ देने से वह वस्तु सोने की बन जाती है।)

भावार्थ:- यहां पर तुलसीदास जी के दोहे के माध्यम से कहते हैं कि जो लोग मनुष्य का शरीर पाकर भी राम अर्थात ईश्वर का भजन-स्मरण नहीं करते हैं और बुरे विषयों में खोए रहते हैं। वे लोग उसी व्यक्ति की तरह मूर्खतापूर्ण आचरण करते हैं, जो पारस मणि को हाथ से फेंक देता है और कांच के टुकड़े हाथ में उठा लेता है।

दोहा – 50

असन बसन सुत नारि सुख, पापिहुँ के घर होइ।

संत-समागम रामधन, ‘तुलसी’ दुर्लभ दोइ।।

शब्दार्थ

संत-समागम – सज्जन और महात्मा का एकत्र होना

दुर्लभ – कठिनता से प्राप्त होनेवाला

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि भोजन, वस्त्र, पुत्र और स्त्री-सुख तो पापी के घर में भी हो सकते हैं; पर सज्जनों का समागम भगवान और राम रूपी धन की प्राप्ति ये दोनों बड़े दुर्लभ हैं। भाव यह है कि जिसके बड़े भाग्य होते हैं उसे ही भगवद्भक्ति तथा सज्जन पुरुषों की संगति प्राप्त होती है।

दोहा – 51

लखई अघानों भूख ज्यों, लखइ जीतिमें हारि।

तुलसी सुमति सराहिए, मग पग धरइ बिचारि।।

शब्दार्थ

लखइ – देखता

अघानो – पेटभरा, तृप्त

सुमति – अच्छी मति

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि जो भूख में (अभाव में भी) अपने को तृप्त के समान समझता है और जीत में भी अपनी हार मानता है, इस प्रकार जो खूब विचार – विचार कर मार्ग पर पैर रखता है, वह बुद्धिमान हो सराहने योग्य है।

अर्थात्‌ अभाव का अनुभव करने से ही कामना होती है और कामना ही पाप की जड़ है; अतएव जो सदा अपने को तृप्त, पूर्ण काम मानता है, उसके द्वारा पाप नहीं होते, इसी प्रकार अपनी विजय मानने से अभिमान बढ़ता है, जो पतन का हेतु होता है। अतएव जो पुरुष प्रत्येक क्रिया में और फल में अभिमान का त्याग कर विचारपूर्वक दोषों से बचत रहता है, वहीं बुद्धिमान हैं और वहीं प्रशंसनीय है।

दोहा – 52

तुलसी भलो सुसंग तें, पोच कुसंगति सोइ।

नाउ किंनरी तीर असि, लोह बिलोकहु लोइ।।

शब्दार्थ

पोच – बुरा, निर्बल

किंनरी – मधुर संगीत सुनाने वाला

असि – तलवार

लोह – लोहा

बिलोकहु – देखना

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि अच्छी संगति से मनुष्य अच्छा बनता है और बुरी संगति से वह बुरा बन जाता है। वे उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि हे लोगों ! देखो, जो लोहा नाव में लगने से सबको पार उतारने वाला और सितार में लगने से मधुर संगीत सुनाकर सुख देने वाला बन जाता है, वही तलवार और तीर में लगते ही जीवों के प्राण का घातक हो जाता है।

दोहा – 53

मनिमय दोहा दीप जहँ, उर घर प्रगट प्रकास।

तहँ न मोह तम भय तमी, कलि कज्जली बिलास।।

शब्दार्थ

मनिमय – मणि समान

उर – हृदय

घर – गृह

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि जिस हृदय के आंगन में इन दोहे रूपी मणिमय दीपक का उजाला होगा वहां मोह रूपी अंधकार, भयरूपी रात्रि, काल की कालिमा का निवास नही हो सकता है।

दोहा – 54

नगर नारी भोजन, सचिव सखा अगार।

सरस परिहरें रंग रस, निरस बिषाद बिकार।।

शब्दार्थ

नारी – स्त्री

सचिव – मंत्री

अगार – घर

विषाद – शोक

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि नगर, स्त्री, भोजन, मंत्री, सेवक, मित्र और घर इनकी सरसता नष्ट होने से पहले ही इन्हें छोड़ देने में शोभा और आनंद है। नीरस होते पर इनका त्याग करने में तो शोक और अशांति ही होती है।

दोहा – 55

नीच निरादरहीं सुखद, आदर सुखद बिसाल।

कदरी बदरी बिटप गति, पेखहु पनस रसाल।।

शब्दार्थ

निरादरहीं – निरादर करना

कदरी – केला

बदरी – बेर

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि नीच लोग निरादर करने से और बड़े लोग आदर करने से सुखी होते हैं। यह तथ्य इस प्रकार समझ में आ सकता है कि केले, बेर तथा कटहल और आम की प्रकृति अलग-अलग होती है। केला और बेर काटे जाने पर अधिक फल देते हैं, परन्तु कटहल और आम सींचने और सेवा करने पर ही फल देते हैं।

दोहा – 56

पुन्य प्रीति पति प्रापतिउ, परमारथ पथ पाँच।

लहहिं सुजन परिहरहि खल, सुनहु सिखावन साँच।।

शब्दार्थ

पति – प्रतिष्ठा

लह॒हिं – ग्रहण करना

खल – दुष्ट

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि पुण्य, प्रेम, प्रतिष्ठा और लौकिक लाभ तथा परमार्थ पथ – इन पाँचों को सज्जनगण ग्रहण करते हैं पर दुष्ट व्यक्ति इनका परित्याग कर देते हैं। यही सच्ची शिक्षा है, इसको ध्यान देकर सुनो।

दोहा – 57

हित पुनीत सब स्वारथहिं, अरि असुद्ध बिनु चाड़।

निज मुख मानिक सम दसन, भूमि परे ते हाड़।।

शब्दार्थ

पुनीत – पवित्र

अरि – शत्रु

निज – अपना

सम – समान

दसन – दाँत

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि जब तक स्वार्थ है तभी तक सभी वस्तुएँ पवित्र और हितकारी प्रतीत होती है। जब स्वार्थ समाप्त हो जाता है या उनकी चाह कम हो जाती है तो वही वस्तुएँ जो स्वार्थ के समय पवित्र और हितकारी जान पड़ती थीं, अपवित्र और शत्रु के समान प्रतीत होने लगती है। उदाहरण देते हुए तुलसी अपने कथन को स्पष्ट करते हैं कि जब तक दाँत मुख में रहते हैं, तब तक वे माणिक के समान मूल्यवान होते हैं, परंतु वही दाँत जब टूटकर भूमि पर गिर पड़ते हैं तब वे हाड़ कहलाते हैं, अस्पृश्य तक हो जाते हैं।

दोहा – 58

कुदिन हितू सो हित सुदिन, हित अनहित किन होड़।

ससि छबि हर रबि सदन तउ, मित्र कहत सब कोड़।।

शब्दार्थ

कुदिन – बुरे दिन

हितू – हित करने वाला

ससि – चन्द्रमा

भावार्थ:- सुख के दिनों में चाहे कोई मित्र या शत्रु कुछ भी क्यों न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, यह कोई महत्व की बात नहीं है, पर सच्चा मित्र उसे ही माना जा सकता है जो बुरे दिनों-विपत्ति काल में भी प्रेम करता है । सूर्य अपने घर में अमावस्या के दिन चन्द्रमा की शोभा को हरण कर लेता है फिर भी उसको सब ‘मित्र’ ही कहते हैं क्योंकि वह विपत्ति काल में चन्द्रमा को अपनी किरणें प्रदान करके उसे आलोकित करता है, उसकी विपत्ति काल में भलाई ही करता है।

दोहा – 59

पबि पाहन दामिनि गरज, झरि झकोर खरि खीझि।

रोष न प्रीतम दोष लखि, तुलसी रागहि रीझि।।

शब्दार्थ

पबि – ओले

पाहन – पहाड़

दामिनि – बिजली

रोष – क्रोध

रागहि – प्रेम।

रीझि – प्रसन्न होना

भावार्थ:- चातक तो बेचारा बादल को ही रटता रहता है पर बादल वज्र गिराकर ओले बरसाकर, बिजली चमकाकर कड़क-कड़ककर वर्षा की झड़ी लगाकर और आँधी के भीषण झकोरे चलाकर अपना बड़ा भारी रोष प्रकट करता है, पर चातक पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह अपने प्रियतम का दोष देखकर क्रोध नहीं करता। वह उसमें दोष भी नहीं देखता अपितु इसमें भी वह अपने प्रियतम मेघ का अपने प्रति अनुराग ही देखता है और उस पर रीझ भी जाता है।

दोहा – 60

बरसा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास।

रामनाम बर बरत जुग, सावत भादव मास॥

शब्दार्थ

सालि – धान

जुग – दोनों

भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु के समान परमानन्ददायिनी है, क्योंकि यही प्रेमा-भक्ति है और प्रेमा-भक्ति सहज कल्याणकारी होती है। जो प्रेमीजन है, भक्तजन है, वे धान की फसल के समान हैं, जो वर्षा ऋतु में ही लहलहाती हैं। ‘रा’ और ‘म’ रामनाम के दो सुन्दर अक्षर सावन-भादों के समान वर्ष के मास हैं। जिस प्रकार वर्षा काल के दो महीनों में (सावन-भादो में) धान लहलहा उठता है, उसी प्रकार भक्ति की वर्षा से दास (भक्ति) लहलहा उठता है, अत्यधिक प्रसन्न हो उठता है।

This post was last modified on November 21, 2024 9:38 pm