9 जनवरी 1915, यही वो तारीख थी जब मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे. मुंबई में उनके स्वागत की तैयारियां की गईं. बंबई (अब मुंबई) के अपोलो बंदरगाह पर हजारों कांग्रेस कार्यकर्ता मौजूद थे. जैसे ही वो सुबह पहुंचे कार्यकर्ताओं ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया. 1893 में जब वो दक्षिण अफ्रीका गए तो मात्र 24 साल के थे, लेकिन जब भारत लौटे तो 45 साल के अनुभवी वकील बन गए थे. देश के 25 करोड़ों की निगाहें पर उन टिकी हुई थीं. इसकी एक वजह भी थी.
दरअसल उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए जो लड़ाई लड़ी उससे भारतीयों के मन में यह उम्मीद जगी कि यह नेता हमें अंग्रेजों से आजाद करा सकता है. 9 जनवरी को हुई उनकी वापसी को प्रवासी भारतीय दिवस के रूप में मनाया जाता है.
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बंगाल का बंटवारा और कलकत्ता से दिल्ली बनी राजधानी
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महात्मा गांधी जिस दौर में देश लौटे थे उस वक्त देश में कई बदलाव हो चुके थे और कई जारी थे. 1905 में बंगाल दो टुकड़ों में बंट चुका था. 1911 में कलकत्ता की जगह दिल्ली को देश की राजधानी बनाया जा चुका था. कांग्रेस ने 30 साल पूरे कर लिए लिए थे, लेकिन आजादी की जंग में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण नहीं थी. आजादी की जंग कैसे लड़ी जाए, इस पर लोग बंटे हुए थे. कुछ का मानना था कि अंग्रेजों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जाए. वहीं, कुछ ने अहिंसा से आजादी की लड़ाई लड़ने की बात कही.
ऐसे पनपा था अहिंसा का बीज
राष्ट्रपिता ने आजादी की जंग की शुरुआत बिहार के चंपारण से की. जिसे चंपारण सत्याग्रह के नाम से जाना गया. उन्होंने अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए अहिंसा का मार्ग अपनाया. इसका बीज उनकी दक्षिण अफ्रीका में हुई एक यात्रा के दौरान पनपा था.
घटना 7 जून 1893 की है. युवा वकील के तौर पर काम करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी रेलगाड़ी से डरबन से प्रिटोरिया जा रहे थे. वो अपने मुवक्किल दादा अब्दुल्लाह के केस के सिलसिले में यात्रा कर रहे थे. उनकी ट्रेन पीटरमारित्ज़बर्ग पर रुकी. ट्रेन के कंडक्टर ने उन्हें फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे से बाहर निकल जाने को कहा. यह वो दौर था जब ट्रेन का पहला दर्जा गोरे लोगों के लिए रिजर्व हुआ करता था.
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कंडक्टर ने उनसे निचले दर्जे के यात्रियों के डब्बे में जाने को कहा. जब बापू ने कंडक्टर को पहले दर्जे का टिकट दिखाया, तो भी वो उसे न मानते हुए उन्हें बेइज़्ज़त कर के ट्रेन से ज़बरदस्ती उतार दिया.पीटरमारित्ज़बर्ग के जिस प्लेटफॉर्म पर उन्हें उतारा गया, वहां आज भी एक तख्ती लगी है जिस पर लिखा कि यही वो जगह है जहां महात्मा गांधी को धक्का देकर उतारा गया था. यह वो घटना थी जिसने उनके जीवन का रुख मोड़ दिया था. ट्रेन से उतारे जाने के बाद उन्होंने स्टेशन पर गुजारी.
राष्ट्रपति ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखा है कि यात्रा के दौरान मेरे संदूक में ओवरकोट रखा था, लेकिन मैंने इस डर के कारण उसे नहीं मांगा कि कहीं मुझे दोबारा फिर बेइज्जत न किया जाए. नस्लीय भेदभाव की इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने भेदभाव के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया. उन्होंने वहां पर शांति और अहिंसक तरीकों से रंगभेद से लड़ने के लिए उनकी नीतियों के खिलाफ आंदोलन करने लगे. जब वो भारत पहुंचे तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ गईं.
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