॥विनियोगः॥ ॐ अस्य आदित्यहृदयस्तोत्रस्य अगस्त्य ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, आदित्यहृदयभूतो भगवान् ब्रह्मा देवता, निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः ।
इस आदित्य हृदय स्तोत्र के ऋषि अगस्त्य, छन्द अनुष्टुप्, देवता आदित्यहृदयभूत भगवान् ब्रह्मा हैं । सभी प्रकार के विघ्नों को दूर करने के लिये, ब्रह्म-ज्ञान और विजय की सिद्धि (प्राप्ति) के लिये इसका विनियोग किया जाता है।
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॥ ऋष्यादिन्यासः ॥ ॐ अगस्त्य ऋषये नमः, शिरसि । अनुष्टुप्छन्दसे नमः, मुखे । आदित्यहृदयभूत-ब्रह्मदेवतायै नमः, हृदि । ॐ बीजाय नमः, गुह्ये । रश्मिमते शक्तये नमः, पादयोः । ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः; नाभों ।
॥ करन्यासः ॥ ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः । ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः । ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
॥हृदयादि अंगन्यासः॥ ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः । ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा । ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट् । ॐ विवस्वते कवचाय हुम् । ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट् ।
इस प्रकार न्यास करके अग्रलिखित ‘गायत्री मन्त्र’ से भगवान् सूर्य का ध्यान कर उन्हें नमस्कार करना चाहिये- ॐ भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
इसके बाद में भगवान् सूर्य के सुप्रसिद्ध बारह नामों का स्मरण करना चाहिये जो कि इस प्रकार हैं- १. आदित्य, २. दिवाकर, ३. भास्कर, ४. प्रभाकर, ५. सहस्रांश, ६. त्रैलोक्यलोचन, ७. हरिदश्व, ८. विभावसु, ९. दिनकर, १०. द्वादशात्मा, ११. त्रयोमूर्ति, १२. सूर्य । इसके बाद अग्रलिखित ‘श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम्’ का पाठ करना चाहिये ।
॥ अथ श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम्॥
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥१॥ अर्थ: (भगवान् श्रीराम) युद्ध से थककर, कुछ चिन्ता करते हुये युद्धभूमि में खड़े हैं । रावण युद्ध करने के लिये उनके सामने आकर खड़ा हो गया है ।
देवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥२॥ अर्थ: भगवान् अगस्त्य देवताओं के साथ युद्ध को देखने के लिये वहाँ आये । उन्होंने यह (रावण को राम के सम्मुख) देखकर राम के समीप जाकर कहा।
राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम् । येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥३॥ अर्थ: हे महाबाहु राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो । हे वत्स ! इससे तुम युद्ध में सारे शत्रुओं को जीत सकोगे।
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ||४|| अर्थ: यह ‘आदित्य-हृदय स्तोत्र’ पवित्र और सारे शत्रुओं को नष्ट करने वाला है । इस अक्षय और परम कल्याणकारी स्तोत्र का नित्य जप करने से विजय मिलती है ।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् । चिन्ताशोकप्रशमनम् आयुर्वर्धनम् उत्तमम् ॥५॥ अर्थ: यह सभी प्राणियों का मंगल करने वाला, सारे पापों को नष्ट करने वाला, चिन्ता और शोक का शमन करने वाला और आयु को बढ़ाने वाला उत्तम स्तोत्र है ।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् । पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥६॥ अर्थ: रश्मिमान् (अनन्त किरणों से सुशोभित), समुद्यन् (नित्य उदय होने वाले), भास्कर (प्रभा का विस्तार करने। वाले), भुवनेश्वर (जगत् के स्वामी), देवों और असुरों द्वारा नमस्कृत भगवान् विवस्वान् का पूजन करो ।
सर्वदेवतात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः । एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥७॥ अर्थ: सारे देवता इन्हीं के स्वरूप हैं । ये तेजस्वी और अपनी किरणों से संसार को स्फूर्ति देने वाले हैं । अपनी किरणों को फैलाकर ये देवों और असुरों के साथ-ही-साथ सारे लोकों का भी पालन करते हैं।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः । महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥८॥ अर्थ: ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, धन प्रदान करने वाले कुबेर, काल, यम, सोम (चन्द्रमा) और जल के स्वामी वरुण देव हैं ।
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः । वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥९॥ अर्थ: ये ही पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं के कारक (कर्ता) और प्रभा के स्रोत हैं ।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ॥१०॥ अर्थ: आदित्य (अदिति के पुत्र), सविता (संसार को उत्पन्न करने वाले), सूर्य, खग (आकाश में विचरण करने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्ण सदृश (सोने के समान), भानु (प्रकाश करने वाले), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के कारक), दिवाकर (दिन का प्रकाश करने वाले) ।
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् । तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥११॥ अर्थ: हरिदश्व, सहस्रार्चि (हजारों किरणों से शोभायमान), सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचिमान् (किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अंधकार दूर करने वाले), शम्भु (कल्याण करने वाले), त्वष्टा (भक्तों का दुख दूर करने वाले), मार्तण्डक (ब्रह्माण्ड को जीवन देने वाले), अंशुमान (किरणों को धारण करने वाले) ।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो रविः । अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥१२॥ अर्थ: हिरण्यगर्भ, शिशिर (सुख देने के स्वभाव वाले), तपन (गर्मी करने वाले), अहस्कर (दिन करने वाले), रवि, अग्निगर्भ (गर्भ में अग्नि धारण करने वाले), अदिति के पुत्र, शंख, शिशिरनाशन (ठण्ड को दूर करने वाले) ।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुः सामपारगः । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥१३॥ अर्थ: व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अंधकार को भेदने वाले), ऋग्वेद-यजुर्वेद सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (वर्षा कराने वाले), अपां मित्र (जल बनाने वाले), विन्ध्यवीथीप्लवंगम (आकाश में तेज गति से चलने वाले ) ।
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः । कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ॥१४॥ अर्थ: आतपी, मण्डली (रश्मि-पुंज को धारण करने वाले), मृत्यु, पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सभी को गर्मी देने वाले), कवि (तीनों कालों के ज्ञाता), विश्व, महातेजवान्, रक्त (लाल रंग वाले), सर्वभवोद्भव (सभी प्राणियों को उत्पन्न करने वाले) ।
नक्षत्रग्रहताराणाम् अधिपो विश्वभावनः । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥१५॥ अर्थ: नक्षत्रों ग्रहों-तारों के अधिपति, विश्वभावन (विश्व के रक्षक), तेजस्वियों में भी सबसे अधिक तेजस्वी, द्वादशात्मा (बारह रूपों वाले) – (इन नामों वाले) तुम्हें नमस्कार है ।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥१६॥ अर्थ: पूर्वगिरि (उदयाचल) के रूप में नमस्कार है, पश्चिमगिरि (अस्ताचल) के रूप में नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (प्रकाश करने वाले समूहों तारों, ग्रहों आदि) के अधिपति और दिन के स्वामी को नमस्कार है ।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः । नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥१७॥ अर्थ: जय, जयभद्र और हर्यश्व (विविध रंगों के घोड़ों वाले) -को बारम्बार नमस्कार है । सहस्रांश (हजारों किरणों से सुशोभित) को नमस्कार है । आदित्य को नमस्कार है ।
नमः उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः । नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तुते || १८ |। अर्थ: उग्र, वीर, सारंग (शीघ्र चलने वाले) को नमस्कार है। पद्मप्रबोध (कमलों को विकसित करने वाले) को नमस्कार है । प्रचण्ड तेज वाले, तुम्हें नमस्कार है ।
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूराय आदित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥१९॥ अर्थ: ब्रह्मा शिव और विष्णु के स्वामी, सूर, सूर्यमण्डल रूपी तेज वाले, प्रकाश से परिपूर्ण, सभी का संहार करने वाले, रौद्र रूप वाले को नमस्कार है ।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥२०॥ अर्थ: अंधकार दूर करने वाले, ठंड दूर करने वाले, शत्रु- संहार करने वाले, अमित स्वरूप वाले, कृतघ्नों का नाश करने वाले, ज्योतियों के स्वामी, देवता को नमस्कार है ।
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥२१॥ अर्थ: तपाये हुये सोने के समान आभा वाले, हरि, विश्वकर्मा, अंधकार का नाश करने वाले, रुचि (प्रकाश स्वरूप), संसार के साक्षी को नमस्कार है ।
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभुः । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ||२२|| अर्थ: ये सूर्यदेव ही सभी प्राणियों का नाश करते हैं, ये ही उनका सृजन (उत्पत्ति) करते हैं, ये ही उनका पालन करते हैं । ये ही गर्मी देते हैं और ये ही वर्षा करते हैं ।
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥२३॥ अर्थ: ये सभी प्राणियों में (अन्तर्यामी रूप में) स्थित होकर उनके सोने पर जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र हैं और अग्निहोत्री को मिलने वाले फल भी ये ही हैं ।
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥ २४ ॥ अर्थ: देवता, किये गये कार्य (यज्ञ) और उन कार्यों का फल भी ये ही हैं। सारे संसार में जो भी कार्य होते हैं, उन सभी कार्यों का फल देने वाले प्रभु भी ये ही हैं ।
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥ २५॥ अर्थ: हे राघव ! विपत्तियों में, कष्ट होने पर, दुर्गम राहों में | और भय होने पर इनका कीर्तन (जाप) करने वाले पुरुष को किसी भी प्रकार का दुख नहीं होता है ।
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यति ॥ २६ ॥ अर्थ: इन संसार के स्वामी, देवों के भी देव (भगवान् सूर्य) की तुम एकाग्र मन से पूजा करो। इसका तीन बार जप करने पर युद्ध में तुम्हारी ही जीत (विजय) होगी । |
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥२७॥ अर्थ: हे महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण को मार सकोगे । यह कहकर अगस्त्य ऋषि जिस प्रकार से आये थे, उसी प्रकार से ही चले गये ।
एतत् श्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा । धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥२८॥ अर्थ: यह सुनकर महातेजस्वी राघव का शोक नष्ट हो गया। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक शुद्ध मन से इसे धारण किया ।
आदित्यं प्रेक्ष्य जपत्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् । त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९॥ अर्थ: तीन बार आचमन करके शुद्ध होकर भगवान् आदित्य को देखते हुये इस स्तोत्र का जप करने से उन्हें परम हर्ष हुआ । फिर पराक्रमी (भगवान् श्रीराम) धनुष लेकर ।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागमत् । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥३०॥ अर्थ: रावण की ओर देखते हुये विजय प्राप्ति के लिये आगे बढ़े । सारे प्रयास कर (अवश्य ही उसका वध करूँगा- ऐसा उन्होंने निश्चय किया ।
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः । निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१॥ अर्थ: भगवान् सूर्य ने श्रीराम की ओर प्रसन्न होकर देखा । राक्षसराज रावण के विनाश का समय जानकर देवताओं के मध्य जाकर भगवान् सूर्य बोले- जल्दी करो ।
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॥ इति श्रीआदित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
श्री सूर्य कवचम्
शृणुध्वं मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचम् शुभम् । शरीरारोग्यदं दिव्यं सर्वसौभाग्यदायकम् ।। अर्थ: हे शार्दूल मुनि ! भगवान् सूर्य के कल्याणकारी कवच को सुनो। यह शरीर को आरोग्य प्रदान करने वाला और सभी प्रकार के सौभाग्य देने वाला दिव्य कवच है ।
देदीप्यमानमुकुटम् स्फुरन्मकरकुण्डलम् । ध्यात्वा सहस्रकिरणं स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ॥ अर्थ: देदीप्यमान मुकुट, स्फुरित कुण्डलों को और हजारों किरणों को धारण करने वाले भगवान् सूर्य का ध्यान कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये ।
शिरो मे भास्करः पातु ललाटं मेऽमितद्युतिः । नेत्रे दिनमणिः पातु श्रवणे वासरेश्वरः ॥ अर्थ: मेरे सिर में भास्कर, ललाट में अमितद्युति (जिनका तेज अमिट है), नेत्र में दिनमणि और कान में वासरेश्वर (दिन के स्वामी) निवास करें ।
घ्राणं धर्मधृणिः पातु वदनम् वेदवाहनः । जिह्वा मे मानदः पातु कण्ठं मे सुरवन्दितः ॥ अर्थ: मेरी नासिका में धर्मघृणि (धर्म को धारण करने वाले), मुख में वेदवाहन, जीभ में मानद (मान देने वाले) और गले में सुरवन्दित (सारे देवताओं द्वारा पूजे जाने वाले)। भगवान् निवास करें ।
स्कंधौ प्रभाकरः पातु वक्षः पातु जनप्रियः । पातु पादौ द्वादशात्मा सर्वांगं सकलेश्वरः ॥ अर्थ: मेरे दोनों कन्धों में प्रभाकर, वक्ष में जनप्रिय, दोनों पैरों में द्वादशात्मा और सारे शरीर में सकलेश्वर (सारे प्राणियों के स्वामी) निवास करें ।
सूर्य रक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्जपत्रके । दधाति यः करे तस्य वशगाः सर्वसिद्धयः ॥ अर्थ: भगवान् सूर्य के इस रक्षा स्तोत्र को भोजपत्र पर लिखकर जो हाथ में धारण करता है, सारी सिद्धियाँ उसके वश में हो जाती हैं ।
सुस्नातो यो जपेत् सम्यग् योऽधीते स्वस्थमानसः । सः रोगमुक्तो दीर्घायुर्मुखं पुष्टिं च विन्दति ॥ अर्थ: जो (प्रातःकाल) स्नान करके इसका जाप करता है और पवित्र मन से इसे धारण करता (पाठ करता) है, वह सभी रोगों से मुक्त, दीर्घायु, सुखी व पुष्ट होता है ।
॥ इति श्रीयाज्ञवल्क्यविरचितं श्रीसूर्यकवचं सम्पूर्णम् ॥
श्री सूर्याष्टकम्
आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर । दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ॥ अर्थ: हे आदि देव ! आपको नमस्कार है । हे भास्कर ! आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे दिवाकर ! आपको नमस्कार है । हे प्रभाकर ! आपको नमस्कार है ।
सप्ताश्वरथमारूढं प्रचण्ड कश्यपात्मजम् । श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।। अर्थ: जो सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हैं, प्रचण्ड तेजस्वी हैं. महर्षि कश्यप के पुत्र हैं, सफेद कमल धारण किये हुये है उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
लोहितं रथम् आरूढं सर्वलोकपितामहम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अर्थ: जो लोहित (लाल) रंग के रथ पर आरूढ़ हैं, सारे संसार के पितामह हैं, बड़े से बड़े पापों को भी नष्ट करने वाले हैं- उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्माविष्णुमहेश्वरम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अर्थ: जो त्रिगुणमयी ब्रह्मा-विष्णु-शिव स्वरूप हैं, महान् बलशाली हैं, महापापों को भी नष्ट करते हैं- उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
बृहितं तेजःपुञ्जं च वायुमाकाशमेव च । प्रभुं च सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अर्थ: जो बढ़े हुये तेज के पुञ्ज हैं, वायु तथा आकाश स्वरूप हैं, सारे लोकों के स्वामी हैं- उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
बन्धूकपुष्पसंकाशं हार-कुण्डल- भूषितम् । एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अर्थ: जो बन्धूक (दोपहर) के पुष्प के समान (लाल) हैं, हार तथा कुण्डल धारण किये हुये हैं, जिन्होंने एक चक्र धारण किया हुआ है- उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेजः प्रदीपनम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अर्थ: जो सारे संसार के कर्ता हैं, महान् तेज को प्रदीप्त करते हैं, महापापों को नष्ट करते हैं- उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
तं सूर्यं जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम् । महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ॥ अर्थ: जो सूर्य सारे संसार के स्वामी हैं, ज्ञान-विज्ञान और मोक्ष देने वाले हैं, बड़े से बड़े पापों को भी नष्ट कर देते हैं- उन सूर्यदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
॥ इति श्रीशिवप्रोक्तं सूर्याष्टकं सम्पूर्णम् ॥
॥श्री सूर्य भगवान् की आरती॥
जय कश्यप नन्दन, जय अदिति नन्दन । त्रिभुवन- तिमिर-निकन्दन, भक्त हृदय वन्दन ॥ सप्त अश्व रथ राजित, चतुर्भुजा धारी । दुखहारी, सुखकारी, भक्तन हितकारी ॥ सुर नर मुनिजन वन्दित, विमल विभवशाली । घन-दल-दलन दिवाकर, दिव्य किरणमाली॥ सकल सुकर्म प्रसविता, सविता शुभकारी। विश्व विमोचन मोचन, भव-भंजन भारी॥ पुष्प-समूह विकासत, जगाओ सब प्राणी। तुम ही हरि-हर- ब्रह्मा, धन-शक्ति-वाणी॥ सकल रोग-हर सुरवर, भू पीड़ा हारी। दृष्टि विमोचन सन्तन, परहित व्रतधारी॥ सूर्यदेव करुणाकर, अब करुणा कीजै। हर अज्ञान अवगुण, मित्र तत्व ज्ञान दीजै॥
॥ श्री सूर्य भगवान् की जय ॥
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